गुस्ताखी माफ़- बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच भगत की भक्ति में ही सार बचा है..
बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच भगत की भक्ति में ही सार बचा है..
राजनीति में कोई किसी नेता का लंबे समय दुश्मन नहीं रहता और लंबे समय दोस्त भी नहीं रहता। भाजपा में यह परंपराएं अब पहले से ज्यादा बदलने लगी हैं। रायता फैलने की प्रवृत्ति इतनी ज्यादा हो गई है नेता समय-समय पर रायता फैलाने और समेटने में लगे रहते हैं। उदाहरण माना जाए तो पिछले सत्रह सालों में भाजपा में परिवेश के साथ जो मूल्य बदलते गए, उन्होंने एक साथ खड़े होने वाले कई नेताओं को अलग-अलग जाजम पर पहुंचा दिया। किसी जमाने में कैलाश विजयवर्गीय और लक्ष्मणसिंह गौड़ को उमा भारती अपने राम-लक्ष्मण मानती थीं। समय के साथ राम-लक्ष्मण भी अलग-अलग गोलबंदी में शामिल हो गए। जब कैलाश विजयवर्गीय ने क्षेत्र क्रमांक चार को छोड़ा था, उस वक्त लक्ष्मणसिंह गौड़ को विधायक बनाने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। बाद में रिश्तों की बुनियाद ऐसी बिगड़ी कि मंत्री बनाने को लेकर भी खींचतान बनी रही। फिर लक्ष्मणसिंह गौड़ के सिपहसालार रहे कैलाश शर्मा और शंकर यादव भी गौड़ परिवार से खींचतान के चलते मुक्त हो गए, जो आज तक जमीन तलाश रहे हैं। इधर, उषा दीदी का तो गजब मामला रहा है।
वे जहां से लड़ीं, वहां अपने ही सेनापति को घर छोड़ आईं। क्षेत्र क्रमांक एक में उनके पहले चुनाव के सूत्रधार मदनलाल फौजदार थे, जो चुनाव जीतने के बाद फौज से बाहर हो गए। फिर यह परंपरा उन्होंने क्षेत्र क्रमांक तीन में भी जारी रखी। अब वे महू में इस बार अपने कट्टर समर्थकों को दरकिनार कर चुकी हैं। हालांकि यह भी माना जा रहा है एक बार में एक ही विधानसभा से चुनाव लड़ती हैं। अब कुछ रिश्ते और भी हैं, जो खिंचते चले गए, जिसमें भंवरसिंह शेखावत और कल्याण देवांग भी शामिल हैं। किसी जमाने में देवांग, शेखावतजी की खींची गई लक्ष्मण रेखा पार नहीं करते थे, परंतु अब वे उनके खास साथी सुक्का भाटिया के साथ लक्ष्मण रेखा लेकर ही घूम रहे हैं। एक और जोड़ी है, जो कैलाश विजयवर्गीय और दादा दयालू की है। दादा और भिया के बारे में दो जिस्म मगर एक जान कहा जाता रहा। धीरे-धीरे दादा के समर्थकों को लग रहा है कि भिया के साथ उनका जीवन हवन हो रहा है। हालांकि दादा के समर्पण की मिसाल और भिया की दोस्ती का मामला आंतरिक रूप से आज भी पहले जैसा ही है।
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