इंदौर में पहले नगरीय निकाय चुनाव में 68 फीसदी हुआ था मतदान, चुने गए थे 22 पार्षद
दूसरे नगर पालिका चुनाव में एक लाख 24 हजार मतदाताओं ने चुने थे 40 पार्षद,31 फीसदी हुआ था वोटिंग
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(मेहबूब कुरैशी )
इंदौर। मध्यप्ऱदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर आगामी ६ जुलाई को अपने महापौर का चुनाव करेगा। इसके साथ ही शहर में सुविधायुक्त शासन चलाने के लिए ८५ पार्षदो के लिए भी वोट डाले जाएंगे। आजादी के बाद से शहर अपना २४ वां महापौर चुनेगा। कांग्रेस ने इस बार क्षेत्र क्रमांकक एक के विधायक संजय शुक्ला को उम्मीदवार बनाया है वही भारतीय जनता पार्टी ने पूर्वअधिवक्ता और कानून के जानकार पुष्यमित्र भार्गव को अपना उम्मीदवार बनाया है। वैसे तो इंदौर में नगरीय निकाय परिषद का इतिहास बहुत पुराना है। महाराजा के समय ही नगर की व्यवस्था को संभालने के लिए १८७० में पंाच सद्सीय परिषद को नियुक्त किया गया था। ये पांचों सदस्य नगर की व्यापारिक और स्वच्छता संबंधी व्यवस्थाएं देखते थे। ये सभी सदस्य महाराज और अंग्रेज अफसर की सहमति से नियुक्त होते थे। धीरे-धीरे इस परिषद के अधिकारों को बढ़ाया गया और कुछ कानूनी अधिकार भी इसे दिए गए। १९०९ में नगर पालिका अधिनियम लागू किया गया जो ब्रिटेन में संचालित व्यवस्था पर आधारित था। १९१४ में परिषद के सदस्यों की संख्या २० कर दी गई। इसे सलाहकार समीति भी कहा जता था। आजादी तक यही व्यवस्था चलती रही। आजादी के बाद 25 जनवरी 1950 को निर्वाचन आयोग का गठन किया गया। जिसके बाद इंदौर नगर सेविका या नगर परिषद को नागर पालिका का दर्जा दिया गया।
१९५० में इंदौर की पहली नगर पालिका के चुनाव हुए े। इन चुनाव में २२ पार्षद चुने गए थे। इस समय इंदौर की आबादी ३१०८५९ थी। इसमें से सिर्फ ११५००० हजार मतदाता थे। यह एक संयोग है कि पहली बार गुड़ी पड़वा के दिन इंदौर के लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। इन चुनाव में $कुल ६८ फीसदी मतदान हुआ था। वर्तमान में नगर निगम के लिए शहर के कुल १८३५३१६ मतदाता अपने मताधिकार का पयोग करेंगे। चूंकि शुरूआत में देश में एक ही दल था इसलिए जनसंघ ने अपने उम्मीदवारों को निर्दलीय ही मैदान में उतारा था इन्हे स्वतंत्र उममीदवार कहा जाता था।पहले चुनाव में ४७ फीसदी वोट कांग्रेस के खाते में गए थे। वही जनसंघ ने १३ फीसदी वोट हासिल किए थे। पहली नगर पालिका का कार्यकाल तीन साल का था। इसी दौरान चुनाव आयोग की स्थापना होने की वजह से नए नियम लागू होना थे इसलिए इस परिषद का कार्यकाल दो साल बढ़ा दिया गया । नगर पालिका के दूसरे चुनाव १९५५ में हुए थे। पहले चुनाव के मुकाबले में दूसरे चुनाव में लोगों ने कम उत्साह के साथ मतदान में भाग लिया । $जागरूकता नहीं होने की वजह से भी लोग उदासीन थे। यही वजह थी कि दूसरे चुनाव में मात्र ३१ फीसदी मतदान हुआ था। लेकिन इन चुनाव में पार्षदों की संख्या को बढ़ाकर ४० कर दिया गया । चुनाव आयोग इस समय तक पूरी शक्ती के साथ काम कर रहा था। दूसरी नगर पालिका परिषद की समाप्ति के बाद इंदौर नगर पालिका को नगर निगम का दर्जा दे दिया गया। शहर की आबादी लगातार बढ़ रही थी इसी वजह से इसके पार्षदों की संख्या को भी बढ़ाय जाने की माग की जाने लगी थी।अस्सी के दशक में पार्षदों की संख्या को बढ़़ा दिया गया। इस समय इनकी संख्या ६० कर दी गई थी।
साल 2000 में सीधे जनता ने चुना महापौर
इंदौर में पहले सभी पार्षद मिलकर महापौर का चुनाव करते थे लेकिन साल 2000 में यह परंपरा बदली और महापौर चुनने का अधिकार सीधे जनता को दे दिया। उसके बाद से भाजपा कभी इंदौर में महापौर का चुनाव नहीं हारी। साल 2000 में जनता ने पहली बार सीधे भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय को महापौर चुना था।
2005 में मिली पहली महिला मेयर बनी उमाशशि शर्मा
नगर सेविका, नगर पालिका से नगर निगम तक के 72 साल के सफर में इंदौर को पहली महिला मेयर 2005 में मिली। तब तक आरक्षण व्यवस्था लागू हो चुकी थी। उस साल इंदौर की सीट सामान्य महिला के लिए आरक्षित हुई थी। भाजपा ने उमाशशि शर्मा को उम्मीदवार बनाया था, जबकि कांग्रेस ने शोभा ओझा को। शर्मा को जीत मिली थी। दूसरी महिला मेयर भी भाजपा से ही मिली। 2015 में जब इंदौर मेयर की सीट ओबीसी महिला के लिए आरक्षित हुई। विधायक मालिनी गौड़ को अवसर मिला जो जीतीं और 2020 में उनका कार्यकाल पूरा हुआ।
१९२० में शुरू हुई थी नगर सेविका परिषद, शहर काजी को भी बनाया जाता था सदस्य
इंदौर नगर निगम में महापौर व्यवस्था लागू हुए 72 साल हो गए हैं। इन सात दशक में सिर्फ दो बार ऐसा अवसर आया जब शहर का नेतृत्व महिला मेयर ने किया। दोनों ही भाजपा से रहीं। शेष 21 मौकों पर पुरुष ही मेयर रहे जिनमें से अधिकांश कांग्रेस समर्थित रहे। इस बार इंदौर को चौबीसवां मेयर मिलेगा। वैसे इंदौर में पार्षदी की व्यवस्था 1920 से शुरू हो गई थी। तब यह नगर निगम को नगर सेविका कहा जाता था और उस समय केवल 15 पार्षद होते थे। ये सब मनोनीत किए जाते थे। तब शहर काजी भी बतौर पार्षद मनोनीत होते थे। इनके अलाव दो महिलाएं और बारह पुरुषों का मनोनयन होता था। अगली परिषद में पार्षदों की संख्या 22 हो गई।
जब डेली कॉलेज के पाचार्य बने महापौर
१९५८ में इंदौर में तीसरी बार नगरीय निकाय हुए और परिषद का गठन हुआ। इस दौरान इंदौर के प्रतिष्ठित डेली कॉलेज के प्राचार्य आर एन जुत्थी को आमंत्रित सदस्य बनाया गया था। १९६० तक जुतथी परिषद के सदस्य रहे । वह १९६० से १९६२ तक उपमहापौर के पद पर भी रहै। अप्रैल १९६२ में उन्हे एक साल के लिए महापौर चुना गया। महापौर के चुनाव के लिए प्रो. जुत्थी और $प्रभाकर अड़़सुले के बीच मुकाबला हुआ था। जिसमें जुत्थी को जीत हासिल हुई थी।
ये मेयर रहे इंदौर में अभी तक
-ईश्वरचंद जैन,-पुरुषोत्तम विजय,-प्रभाकर अड़सुले-बालकृष्ण गोहर-सरदार शेरसिंह-डॉ. बी.बी. पुरोहित-आर.एन. जुत्शी-नारायण प्रसाद शुक्ला-भंवरसिंह भंडारी-लक्ष्मणसिंह चौहान-लक्ष्मीशंकर शुक्ला-चांदमल गुप्ता ( दो बार)-सुरेश सेठ-राजेंद्र धारकर-श्रीवल्लभ शर्मा-नारायम धर्म-लालचंद मित्तल-मधुकरवर्मा-कैलाश विजयवर्गीय-उमाशशि शर्मा-कृष्णमुरारी मोघे-मालिनी गौड़
१९५५ ईश्वर चंद जैन बने थे शहर के पहले महापौर
साल 1950 में इंदौर में पहली बार नगर सेविका के चुनाव हुए थे। जबकि साल 1955 में पहली बार इंदौर नगर पालिका के चुनाव हुए थे। उस समय नगर में कुल 40 वार्ड हुआ करते थे। इस चुनाव में ईश्वर चंद जैन जीत हासिल करके इंदौर के पहले महापौर बने। इंदौर में पहले सभी पार्षद मिलकर महापौर का चुनाव करते थे लेकिन साल 2000 में यह परंपरा बदली और महापौर चुनने का अधिकार सीधे जनता को दे दिया। उसके बाद से भाजपा कभी इंदौर में महापौर का चुनाव नहीं हारी। साल 2000 में जनता ने पहली बार सीधे मतदान देकर भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय को महापौर चुना था।
अलग-अलग उम्मीदवार के लिए अलग-अलग रंग की मतपेटी रखी जाती थी
चुनावों के शुरूआती दौर में इंदौर में नगर निगम उम्मीदवारों के लिए अलग-अलग कलर की मतपेटी रखी जाती थी। मतदाता इसी से अपने उम्मीदवार को पहचानते थे और वोट देते थे।
पहली महिला महापौर
डॉ. उमाशशि शर्मा को इंदौर की पहली महिला महापौर होने का गौरव हासिल है। उन्होंने साल 2005 में कांग्रेस की शोभा ओझा को हराकर महापौर का चुनाव जीता था।