कूदत-फिरत……..बाजे केवल पेजनिया…….
gustakhi maaf
कूदत-फिरत……..बाजे केवल पेजनिया…….
आ धी रात चकवा अपनी खिड़की से खाली जंगल को जब निहार रहा था तो उस वक्त चकवी ने आकर पूछा… क्या देख रहे हो। इस पर चकवे ने कहा कि राजनीति की रात बड़ी लंबी होती है और काटे नहीं कटती है। इस पर पुन: चकवी ने कहा- आप ऐसा क्यों कह रहे हैं। इस समय तो जंगल में मंगल का सीन देखने को मिल रहा है। चारों तरफ फूल ही फूल खिले हुए हैं।
जो झाड़ अपनी मर्जी से जंगल की सड़क पर हाथ-पैर फैला लेते थे, वे भी आजकल अपने आपको समेट रहे हैं। कई उच्च घराने के जानवर छोटे जानवरों को दाने डालकर अपनी बड़ी-बड़ी बस्ती बनाकर साम्राज्य बढ़ाना चाहते थे। वे भी अज्ञातवास पर चले गए हैं। ऐसे में यह सब आपके प्रयास और आपसे जुड़े कार्यकर्ताओं की मेहनत के कारण ही तो सफल हो रहा है। पूरे जंगल का पर्यावरण सुधर गया है। इस पर चकवे ने कहा हम तो पहले दिन से ही यह कह रहे हैं कि जंगल में जो भी अच्छा हो रहा है, उसमें सबकी भागीदारी है, पर क्या करें, हर अच्छे काम का श्रेय जंगल में बेलगाम हो चुके प्रचार-तंत्र के रंगे सियार, सिंह और शेरनी को ही देते रहते हैं। आधे शहर में सिंह का राज है तो आधे शहर में शेरनी का।
ऐसे में हमारे अच्छे कार्य भी इन्हीं के खातों में चले जा रहे हैं। इस पर मेरे साथियों का शुरू से ऐतराज रहा है। समय-समय पर यह मामला अलग-अलग जंतुओं की बैठक में उठता रहा है, पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है। इस पर चकवी ने कहा- आपने पिछले समय इस मामले में सबके साथ मिलकर एक प्रयोग किया तो था… तो बात पूरी होने से पहले ही चकवे ने लंबी सांस लेकर कहा- अरे, कहां चकवी… जंतुओं की बैठक में यह तय हुआ था कि किसी ऐसे जंतु को इस बार जंगल की कमान सौंप दी जाए, जो दौड़-धूप कर सके और जंगल के प्रति उसका समर्पण भी दिखे। उसमें काम करने की रफ्तार हो और सूरत से सुंदर दिखता हो। कई नाम आए, एक-दूसरे के नामों पर ऐतराज का दौर भी चला।
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जंगल में तो नर-नाग, सुर, गंधर्व सहित निसठ, षठ, जामवंत, बलरास, बालि, सुग्रीव तक भरे हैं। अंतत: आकाशवाणी के बाद खरगोश के नाम पर सहमति हो गई, क्योंकि वह गैर-राजनीतिक था। उसका कोई धड़ा नहीं था और इसमें हित का आनंद भी था, सबको लगा कि यह दौड़-धूप कर लेगा। राजतिलक ढोल-ढमाके के साथ कर दिया।
(कूदत-फिरत……..बाजे केवल पेजनिया…….)