इंदौर। नगर सरकार के मुखिया का फैसला हो चुका है। युवा मेयर बने पुष्पमित्र भार्गव की जीत के पीछे तीन स्पष्ट कारण हैं जिसमें भाजपा के मातृ संगठन संघ की महती भूमिका है। साथ ही पुष्पमित्र संघ की रीति-नीति के साथ संघ से ही निकलकर भाजपा में सक्रिय हुए थे। वहीं भाजपा का मजबूत संगठन भी उनके साथ खड़ा था। जिसने पुष्पमित्र भार्गव की पहचान को आड़े नहीं आने दिया और उन्होंने भाजपा के आधार पर ही मैदान में लड़ाई लड़ी सरकार भी उनके साथ खड़ी थी, जिसका जनमानस पर खासा प्रभाव रहता है।
भाजपा के पास शहर में पिछले सालों में हुए शहर में बड़े परिवर्तन भी थे। चाहे स्वच्छता मिशन हो या वाटर प्लस या फिर स्मार्ट सिटी के तहत शहर में हुए काम व खुले में शौच पर किए कार्य में शहर देश में अग्रणी रहा है, जो भाजपा की परिषद के दौरान ही हुआ है। भार्गव के जहां ये तीन शक्तियां थी, वहीं उनकी निजी टीम भी बेहद सक्रिय रही व उनको शहर का मित्र बनाने में कामयाब रही। 2250 बूथों की रचना उनकी कामयाबी भी रही।
वहीं दूसरी ओर चुनाव हारे विधायक संजय शुक्ला थे। शुक्ला को ना संगठन का सहारा था ना सरकार का, ना किसी अन्य मजबूत आधार के साथ मैदान में थे। उन्होंने अपना ही जनाधार मजबूत करने में पूरी ताकत लगाई क्योंकि शहर में कांग्रेस का न तो संगठन था और न ही शहर में कांग्रेस का कोई मजबूत नेता जो नेता है वे खुद की पहचान के साथ जनाधारहीन होकर शहर में कांग्रेस के वोटों के भरोंसे ही रोटी लंबे समय से खा रहे है। इसी कारण 85 वार्डों में संजय शुक्ला को पूरा संगठन ही खड़ा करना पड़ गया। दूसरी और बड़े नेताओं के पट्ठा वाद ने ऐसे उम्मीदवार थोपदिए जिनका वार्डों में ही जनाधार दूर की बात पहचान तक का संकट था।
विधायक रहते शुक्ला ने जरूर अपनी पहचान अलग बनाई थी। हालांकि शुक्ला की पृष्ठभूमि भी राजनीति की रही है। कहा जाए तो राजनीति उनको विरासत में मिली है। कांग्रेस का संगठन अब सिर्फ कागजों पर ही नजर आता है व जमीनी स्तर पर तार-तार हो चुका है। केंद्र से लेकर प्रदेश तक कहीं उनको सरकार का सपोर्ट नहीं रहा। साथ ही भाजपा पर हमले के रूप में भी उनके पास कोई मजबूत आधार रहा। शुक्ला ने मोर्चा निगम के खिलाफ ही खोले रखा, जहां उन्होंने पीली गाड़ी को गैंग शब्द दिया, जबकि ये उनकी कमजोरी भी रही। क्योंकि पीली गाड़ी ही रोज सुबह घर-घर पहुंचकर घरों का कचरा उठा रही थी व शहर को नम्बर 1 बना रही थी।
कुछेक घटनाओं को छोड़कर शहर के विकास में काम भी कर रही थी। शुक्ला अकेले कांग्रेस में कोरोना काल को भुनाना चाह रहे थे, लेकिन उनको भी जनता ने नजरअंदाज कर दिया। हालांकि संजय शुक्ला अपने दम पर चुनाव अच्छा लड़े व शहर में युवा नेतृत्व की अपनी पहचान बनाई, लेकिन उनको इस चुनाव में बड़ा सबक उन्हीं की विधानसभा से मिला, जहां उनको हार का सामना करना पड़ा। ये सबक है शुक्ला के लिए की उनको अब कैसे राजनीति करने के लिए रणनीति बनानी है। कांग्रेस को भाजपा से लड़ने के लिए अपने संगठन को मजबूत करना होगा।