गुस्ताखी माफ़-सारे घर के बदलने की तैयारी….सवर्णों का युग राजनीति में खत्म होगा…

सारे घर के बदलने की तैयारी….

चुनावी समर का ऐलान होने के साथ ही कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों में उम्मीदवारों की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। कांग्रेस का तो कई वार्डों में भगवान ही मालिक है। पहले आवे-पहले पावे की हालत में भी यहां वार्डों में उम्मीदवार तलाशना कठिन ही रहेगा। कुछ वार्ड ऐसे हैं, जहां लगातार हार ने कांग्रेसियों की कमर तोड़ दी है। दूसरी ओर भाजपा में जिनके चिराग जलते थे, वे आंखों के इशारे से कह देते थे कि किसे, किस वार्ड से लड़ना है। इस बार भाजपा में उम्मीदवारों के चयन को लेकर ऊपरी स्तर पर हुए आमूलचूल परिवर्तन के कारण कई स्थापित नेता खुद ही चुनावी मैदान से बाहर हो रहे हैं, वहीं कल भोपाल पहुंचे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा भी बोल गए हैं कि चाचा, बुआ, भाई, बेटा इस बार उम्मीदवारों की दौड़ में शामिल नहीं हैं। परिणाम यह हो रहा है कि चिराग जलाने वाले भी अपने समर्थकों को स्पष्ट कहने को तैयार नहीं हैं कि आपकी उम्मीदवारी तय है। दूसरी ओर संगठन में बैठे शिखर नेताओं ने भी यह दावा किया है कि इस बार निकाय चुनाव में ऐसे चेहरे अचानक सामने आएंगे, जिनके बारे में चर्चा भी नहीं थी। यह सभी भाजपा के वोट पर चुनाव लड़ेंगे। कई दिग्गज अभी तक खुद की पहचान के आधार पर मैदान में डंटे रहते थे। उम्मीदवारों में कई ऐसे होंगे, जिन्हें भाजपा के ही बड़े नेता अपने यहां जगह नहीं देते थे। कुल मिलाकर यह चुनाव भाजपा के अगले पंद्रह सालों के लिए नई टीम तैयार करने का काम भी करेगा, दूसरी ओर महापौर का टिकिट भी इस बार दिल्ली से तय होगा जिसमें प्रधानमंत्री की भी भूमिका रह सकती है। यानी लंबे समय बाद नीचे का कार्यकर्ता यह गाना गा सकता है कि ‘कैसों-कैसों को दिया था… ऐसों-वैसों को दिया था… अब तो कम से कम लिफ्ट करा दे।Ó

सवर्णों का युग राजनीति में खत्म होगा…

मध्यप्रदेश में अब राजनीति पूरी तरह पिछड़ा वर्ग के आसपास सिमट गई है और इसके चलते हो यह रहा है कि सामान्य वर्ग के नेता अब धीरे-धीरे नेपथ्य में जा रहे हैं। कई नेता ऐसे हैं, जो यह समझ रहे हैं कि उनका राजनीति में लंबा भविष्य नहीं है, क्योंकि मुख्यमंत्री से लेकर सभी पिछड़ा वर्ग की राजनीति में गले-गले डूब चुके हैं। हालत यह हो गई है कि अब सवर्णों के लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा है। जो आवाज बुलंद करे, वे भी अब दरकिनार होते जा रहे हैं। कारण यह है कि सामान्य सीटों पर भी पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को ही दोनों ही दल तवज्जो दिए जाने का ऐलान कर चुके हैं। मुख्यमंत्री तो 2018 में ही ताल ठोंककर ऐलान कर चुके हैं कि कौन माई का लाल है, जो आरक्षण समाप्त करवा दे, यानी इसकी मार जहां पदोन्नति से लेकर उम्मीदवारों तक झेली जा रही है, वहीं धीरे-धीरे सवर्ण नेता भी अब खुद को बचाकर राजनीति करने के पैतरे अपना रहे हैं। भाजपा में ही इसका एक बड़ा उदाहरण देखा जा सकता है कि एक बड़े नेता पर इतने मुकदमे लद गए हैं कि उन्हें आगे का जीवन राजनीति छोड़कर कोर्ट में लगने वाली आवाजों के लिए बिताना होगा। सामान्य वर्ग के नेता भी यह कहने में गुरेज नहीं करते हैं कि इस देश में सामान्य वर्ग से ही अटल विहारी वाजपेयी भी नेता रहे हैं। न विवाद और विवादास्पद। आज भाजपा जो रोटी खा रही है, उसमें अटलजी की बड़ी भूमिका है।

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